नियति

मेरी  गलतियों  पे ,
तेरा व्यंग्य  से  मुस्कुराना 
बात-बात पे छलना,
क्या यही तेरी नियति है ?
आज तुम हो अन्दर ,
मैं दरवाजे पे खड़ी हूँ 
साँस मेरी अंदर ,
तुम पहरे पर खड़े हो 
एक हाथ हो तेरा 
एक हाथ हो मेरा 
सुख -दुख में मिल-जुलकर 
चलाएँ घर-संसार 
ये भावना हमारी 
हमेशा मुझे है छलती
तेरी नियति से टकराकर 
टूट-टूट बिखरती
तेरे हाथों का न मिलना 
यही नियति थी हमारी 
आँखों -आँखों में ही जीना 
भटकन थी हमारी 
तेरा रोज़ का ये छलना 
सहती रही हूँ कब से 
सदियाँ बीत गई हैं 
नियति न तेरी बदली 
आँसू भरे नयन से 
मैं भीख माँगती हूँ 
छलना न कभी किसी को 
ये प्रार्थना हमारी 
कहीं खुद न छले जाओ 
विडम्बना यही तुम्हारी 
दुख तभी भी होगा मुझको 
आँसू  बन छलेगा
तुम रोक न पाओगे 
उन मोतियों की लड़ी को 
हाथ तेरा सुना 
जीवन अधूरा होगा 
नियति के खेल को तुम ,
कहाँ तक छ्लोगे?
जो दिया था कभी तुमने ,
वही तो मिलेगा 
फिर रुदन तुम्हारा क्यूँ है ?
यह सोच लो जरा तुम 
गलतियों पर व्यंग्य से मुस्कुराना 
नियति नहीं तुम्हारी 
प्यार से थपथपाना 
अधिकार भर जताना
हाथों में हाथ लेकर ,
साथ -साथ चलना 
जीवन यही हमारा 
नियति की देन है |
                              प्रतिभा प्रसाद |



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