माँ

आधी रात को हुई दरवाज़े पर दस्तक 
थी पूजा की रात 
इसलिए दरवाज़ा खोली बेहिचक 
सामने खड़ी थी दिव्य सुन्दरी 
साधारण वेशभूषा में
मैं कुछ कहती या पूछती , वह अन्दर आई 
मैं दरवाज़ा बंद कर पलटी
तब तक सामने चौकी पर
वह निद्रा में निमग्न थी
मैं हतप्रभ सी वहीँ कुर्सी डाल बैठ गई |
फिर हथेली पर सिर रखकर सो गई ;
जब आँख खुली , दरवाज़ा वैसे ही बंद था;
महिला का कहीं अता-पता नहीं था ;
मैं सोच में डूब गई |
थीं कहीं वह दिव्यशक्ति ,
जो दरवाज़ा खोले बगैर बाहर जा सकती थी
फिर दस्तक देकर 
अन्दर आने की क्या जरूरत थी ?
सारा दिन इसी उधेड़बुन में बीत गया ;
दूसरी रात फिर वही दस्तक 
और वही दिव्य सुंदरी 
वह नवमी की रात थी |
मैं प्रश्न करने को बेताब थी,
दिव्य शक्ति मुस्कुराई ,
मेरी मंशा समझ पाई 
कहा , तुम्हारे लिए सीख है |
सौभाग्य दस्तक देकर आता है,
चुपचाप चला जाता है |
दुर्भाग्य दबे पाँव आता है,
दबे पाँव जाता है ;
मैं देवी जगतजननी हूँ ;
पंडाल के शोर-शराबे से
दिमाग भन्ना रहा है;
रोशनी से आँखें चुंधियाँ रही हैं,
गलत पात्र को वरदान न दे दूँ ,
इसलिए शांति से विश्राम को
तुम्हारे घर आई हूँ ,
कल चली जाऊँगी,
तुम्हें कुछ माँगना हो तो मांग लो ;
मैं कुछ समझ पाती तभी मेरी जुबान हिली 
मुख से निकला 
माँ अपने हृदय में स्थान दो
शांति दो पवित्र मन दो
माँ का हाथ उठा ,
तथास्तु कहा और अन्तर्धान हो गई |
                                                           प्रतिभा प्रसाद |

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