बार-बार

मुझसे झूठ बोल जाता था 
कोई बार-बार 
था उसकी आँखों में एक सवाल 
जो झलकता था बार-बार 
वह अपने को कम पाता था बार-बार 
डिग्री में, संपदा में, रूप में 
झेंपता था बार-बार 
कार्यकुशलता ,व्यवहार, तहज़ीब में भी 
ओछा हो जाता था बार-बार
मेरे सामने आने में झिझकता था बार-बार 
इसीलिए बहाने बनाता था बार-बार 
धीरे-धीरे अपनी तारीफ़ों के
पुल  बांधने लगा बार-बार
अपनी कमाई को बढ़ा-चढ़ाकर
बताने लगा बार-बार
अपनी साधारण सी बातों की
तारीफ़ करने लगा बार-बार 
अपने अमीर रिश्तेदारों को
गिनाने लगा बार-बार
जब हों पाकेट में दस रूपये 
तब कहता 'सौ हैं ' बार-बार 
मैंने सोचा उन्हें कुंठा से 
निकालना होगा एक बार 
फिर वे अच्छे होंगे हर बार 
मैं हंसकर उनकी बातें सुनती बार-बार 
उनकी कमी को ढँकने लगी बार-बार 
उनके व्यवहारों की तारीफ़ करने लगी बार-बार 
उनकी सुन्दरता को उभारने लगी बार-बार 
उनके दस रूपये को हज़ार बताने लगी बार-बार 
उनकी हर ज़रूरत को पूरा करने लगी बार-बार
उनकी झेंप मिटती गई बार-बार 
अब वे मुस्कुराते हैं बार-बार 
झुठ से बचने लगे बार-बार 
अब अपने दस रुपयों को दस ही बताते हैं
प्यार से सबको निहारते हैं
ख़ुशी को जी रहे हैं बार-बार!!
                                              प्रतिभा प्रसाद |

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