बाला

खुशियों की वह प्याली थी 
झारखण्ड की बाला थी 
जिधर-जिधर वह जाती थी 
खुशियाँ खूब लुटाती थी 
बच्चे जब रोया करते 
उसकी गोद में सोया करते 
अम्मा का जब सिर दुखता था 
आकर वही दबा जाती 
पत्नी जब सोया करती थी 
बाला नाश्ता दिया करती थी 
बच्चों की वह मौसी थी 
घर भर की वह धुरी थी 
काम किसी का नहीं चलता था 
बाला का शासन चलता था |
एक रोज़ एक अतिथि आया 
उसकी नज़र गड़ी बाला पर
बाला ने भी ख़ूब छकाया
पकवानों में ख़ूब रमाया
हाथ न आई वह उसके 
ठेस लिये जब गया अतिथि 
मन ही मन गरमाया 
बाला को पाने की चाहत 
बढने लगी उसके मन में 
मन को जितना समझाता था 
चाहत उसकी बढती जाती 
मन पर एक उन्माद चढ़ा था 
तभी बाज़ार में दिख गई बाला 
जाकर उसने थामा हाथ 
एक तमाचा जब पड़ा  गाल पर 
होश उसे तब ही आया 
तीर छुट चूका था हाथ से 
अपमान अनल मन जलता था 
चोरी की झूठी रपट लिखाई
जेल उसे फिर पहुँचाया 
एक अबला नारी पर 
कहर उसने बरपाया 
बाला की चीख नहीं सुनी किसी ने 
अस्मत उसकी लुटी गई 
खुशियों की प्याली बाला अब 
घंटों रोया करती है
ढूंढ़-ढूंढ़ कर भी वह 
अपनी गलती नहीं है पाती 
भाई पागल हुआ घूमता 
काम नहीं कर पता है 
अन्यायी को सज़ा दिलाने 
हर पल सोचा करता है 
उग्रवाद का जन्म हुआ तब 
अन्यायी पर कहर बरसाया 
शीतल मन हो शांत भाव 
बर्षों  बाद वह सो पाया 
 उग्रवाद नहीं सरल राह है 
काटों भरा वह ताज है 
पर न्याय नहीं जब मिलता है 
आदमी मज़बूरी में 
उग्रवाद पर चलता है |
पर ऐसी सोच भी गलत है 
इससे अलग भी राह है |
                                      प्रतिभा प्रसाद |





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