हलाहल

किसने अरमानों को रौंदा 
कौन रुला गया मुझको 
कौन दे गया पात्र गरल का
याद इसे जब करती हूँ 
अंतर्मन की पीड़ा से तो
जाग सिसकियाँ भरती हूँ
अपनेपन का बोध कराकर ,
पात्र गरल का पिलवाया 
पीड़ा में आनन्द कहाँ है?
आकर तुम मुझ से पूछो
गरल पिलाता हो जब अपना 
जलने में फिर भय कैसा ?
हे सखी ! तुम मुझसे पूछो 
अपनेपन की परिभाषा 
दुनिया बदल गई है अब तो
नहीं कोई तेरा अपना
अपनेपन का बोध तुम्हें तो
हलाहल पिलवायेगा
छोड़ अकेला तुम्हें सड़क पर 
स्वयं मंजिल पा जाएगा |
                                        प्रतिभा प्रसाद |

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