मनुष्यता

बीती रात की बात थी 
मैं अनजान थी 
सपनों से निकलकर 
धरातल पर आई थी 
सूनी सी बगिया , बेजान सा घर 
किसी किलकारी के भ्रम में 
सिसकती इन्तजार के क्रम में 
कोई मेरे पास न आता 
दूर-दूर से झाँक-झाँककर
पौधे को बस देखा करता 
लगाए हैं मैंने मनुष्यता के पौधे 
बस उसकी कोंपले निकल आई हैं 
इसी को पाने को मेरे यहाँ 
लगी है लम्बी कतार
अभी फूल - फल आने बाकी हैं 
इसी माँग पर मैं हूँ अचंभित 
मंडराता है एक प्रश्न आस-पास 
पौधे को समूल नष्ट करने की 
कोई साजिश तो नहीं !!
                                            प्रतिभा प्रसाद |

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