फ्लैट लेने की खबर सुन
पिताजी ने आशीर्वाद पत्र भेजा
देखते ही पत्नी भुनभुनाई
बाबूजी को खरीखोटी सुनाई
प्रशंसा के दो शब्द लिख देते
तो उनका क्या चला जाता ?
लाखों की संपति में से
दो-चार लाख भेज ही देते
तो अपना फर्नीचर तो बन ही जाता !
सारी संपति पर कुंडली मार कर बैठे हैं
पति ने धीरे से कहा , वो तुम्हारी तो नहीं है !
उन्होंने खुद बनाई है |
वो जो चाहें , करें ; तुम्हें क्या परेशानी है ?
गृहप्रवेश में जब पिताजी आए
दो कमरों का फ्लैट देख मुस्कराए
चुन्नू -मुन्नू खुश थे
दादाजी के साथ सोने को बेचैन थे
पर दादाजी की खटिया बालकनी में पड़ी थी
बाबूजी आसमान निहार रहे थे
अपने को बेबस पा रहे थे
सर्दी में ठिठुरने को मजबूर थे
बेटा सहमा हुआ उदास
मुँह लटकाए , कम्बल लिए खड़ा था
अन्दर ड्राइंग रूम में ले जाने को अड़ा था
पिताजी का स्वाभिमान अभी मरा नहीं था
'पिताजी बालकनी में सो जाएँगे तो मर तो नहीं जाएँगे !'
बहू का आदेश कानों में गूंज रहा था
महीने भर रहने को आए पिताजी
अगले ही दिन अपने छोटे शहर को लौट गए |
बात यहीं तक होती तो क्या कहना
कुछ महीने बाद एक धमाका हुआ
बाबूजी का एक ख़त आया
उन्होंने फ्लैट की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी
अपने जल्दी लौट जाने के लिए माफ़ी मांगी थी
और लिखा था ,
तुम्हारे दिल की तरह ही तुम्हारा फ्लैट पाया
और एक निर्णय लेने पर मजबूर हुआ
मैंने अपनी चल-अचल संपति की वसीयत बना दी है
जो मेरी तथा तुम्हारी माँ की सेवा करेगा
वही साड़ी संपति का अधिकारी होगा
यदि समाज के द्वारा हुई हमारी सदगति
तो सारी संपति उस को चली जाएगी
कर्तव्य के बिना अधिकार है अधूरा
ऐसा सोचने पर मन मेरा है पूरा
यह पत्र पढते ही पत्नी हो गई ख़ामोश
और न जाने कब हो गई बेहोश
मुझे हंसी आ गई
मुझे हँसता देख बच्चे दर गए
मैं मुस्कुराया और बोला
बाबूजी ने अच्छा सबक सिखाया
नहले पे दहला लगाया
मुझे भी एक नया रास्ता दिखाया |
प्रतिभा प्रसाद |
पिताजी ने आशीर्वाद पत्र भेजा
देखते ही पत्नी भुनभुनाई
बाबूजी को खरीखोटी सुनाई
प्रशंसा के दो शब्द लिख देते
तो उनका क्या चला जाता ?
लाखों की संपति में से
दो-चार लाख भेज ही देते
तो अपना फर्नीचर तो बन ही जाता !
सारी संपति पर कुंडली मार कर बैठे हैं
पति ने धीरे से कहा , वो तुम्हारी तो नहीं है !
उन्होंने खुद बनाई है |
वो जो चाहें , करें ; तुम्हें क्या परेशानी है ?
गृहप्रवेश में जब पिताजी आए
दो कमरों का फ्लैट देख मुस्कराए
चुन्नू -मुन्नू खुश थे
दादाजी के साथ सोने को बेचैन थे
पर दादाजी की खटिया बालकनी में पड़ी थी
बाबूजी आसमान निहार रहे थे
अपने को बेबस पा रहे थे
सर्दी में ठिठुरने को मजबूर थे
बेटा सहमा हुआ उदास
मुँह लटकाए , कम्बल लिए खड़ा था
अन्दर ड्राइंग रूम में ले जाने को अड़ा था
पिताजी का स्वाभिमान अभी मरा नहीं था
'पिताजी बालकनी में सो जाएँगे तो मर तो नहीं जाएँगे !'
बहू का आदेश कानों में गूंज रहा था
महीने भर रहने को आए पिताजी
अगले ही दिन अपने छोटे शहर को लौट गए |
बात यहीं तक होती तो क्या कहना
कुछ महीने बाद एक धमाका हुआ
बाबूजी का एक ख़त आया
उन्होंने फ्लैट की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी
अपने जल्दी लौट जाने के लिए माफ़ी मांगी थी
और लिखा था ,
तुम्हारे दिल की तरह ही तुम्हारा फ्लैट पाया
और एक निर्णय लेने पर मजबूर हुआ
मैंने अपनी चल-अचल संपति की वसीयत बना दी है
जो मेरी तथा तुम्हारी माँ की सेवा करेगा
वही साड़ी संपति का अधिकारी होगा
यदि समाज के द्वारा हुई हमारी सदगति
तो सारी संपति उस को चली जाएगी
कर्तव्य के बिना अधिकार है अधूरा
ऐसा सोचने पर मन मेरा है पूरा
यह पत्र पढते ही पत्नी हो गई ख़ामोश
और न जाने कब हो गई बेहोश
मुझे हंसी आ गई
मुझे हँसता देख बच्चे दर गए
मैं मुस्कुराया और बोला
बाबूजी ने अच्छा सबक सिखाया
नहले पे दहला लगाया
मुझे भी एक नया रास्ता दिखाया |
प्रतिभा प्रसाद |
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