एक आतंकवादी की मनोदशा

वह बंदूक लिये खड़ा था 
लगातार किसी न किसी को
धराशायी कर रहा था
छूटते खून के फव्वारे देख 
उसका मन विचलित होने लगा था
शाम को माँ के हाथों की रोटी की गंध 
उसके नथुनों में समाने लगी थी 
माँ की याद में आँखों नम हो रही थीं 
निशाना चूक गया था 
अपना ही एक साथी खेत रह गया था 
उसकी निर्निमेष आँखें प्रश्न कर रही थीं 
अपने मारे जाने का कारण पूछ रही थीं 
अब तो कई जोड़ी आँखें 
अपने प्रश्न के साथ-साथ 
उसके आगे-पीछे घुमने लगी थीं 
वह लगातार भाग रहा था 
दुनिया के हर कोने में घूमा
पर इन आँखों से पीछा छुड़ाना तो दूर
अब शब्द प्रश्न बन कानों में गूंजने लगे 
अब किसी मुकाम पर वह कॉप जाता है
स्वयं बंदूक से प्रश्न करता है
यदि आतंकवाद का रास्ता सही है
तो क्यूँ नहीं वह कलम के जोर से है चलता 
जिससे घायल होने पर किसी का रक्त नहीं बहता 
कोई मर गया तो, लाशों का ढेर नहीं लगता 
कलम कई मार से रोज़ मरते हैं
उफ़ तक नहीं करते 
कलम का जवाब कलम से देते हैं
त्योहारों पर गले मिलते हैं
एक दूसरे का हाल पूछते हैं
कोई बीमार हो जाए 
तो उसकी सेवा करते हैं
कोई मर जाए 
तो मंज़िल पर जाते हैं
आतंकवादी दुनिया में
मरनेवालों कई कोई मंज़िल नहीं होती
मरनेवाला गुमनाम रहता है
मारनेवाला भी 
यदि प्रतिघात में मर जाए तो
कोई रोनेवाला नहीं होता
यहाँ न तो मरने में मज़ा है
और न मारने में
तो फिर क्यूँ आतंकवादी बनूँ ?
होता यदि मैं कलम का सिपाही
सर्वत्र पूजा जाता 
बलिदान में गिना जाता 
मौत पर भी सलामी तो पाता
अब गुमनाम जीऊंगा
गुमनाम ही मरूँगा 
जाते-जाते एक सन्देश देता हूँ
हे दुनिया वालों !
कभी आतंकवादी मत बनना 
न जीने कई ख़ुशी होगी
न मरने का ग़म
यूँ ही रह जाओगे 
जैसे त्रिशंकु जी रहे थे कभी !
                                               प्रतिभा प्रसाद |

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