क्या तुमने कल देखा है ?

काम के पुकार में जब चल पड़ा है तू 
आग पेट की कब बुझेगी 
सोच में डूबा है तू 
प्रचंड गर्मी है तू तपा है
साँय-साँय लू चल रही 
टपटप पसीना चू रहा 
क्लांत शरीर प्यासा गला 
आग पेट की जल रही 
नसीहतों का पुलिंदा 
मजदूरी में मिला 
कल फिर आना 'चेंज' नहीं है
मन को चेंज कर गया 
नहीं बुझी तब आग पेट की 
अंजुली भर नल के पानी से
गिर पड़ा वह उसी जगह पर 
मजदूरी की आस में
बंद मुट्ठी अब खुल चुकी थी
निर्निमेष आँखें घूर-घूरकर पूछ रही थीं ,
क्या तुमने कल देखा है ?
                                     प्रतिभा प्रसाद |

हरियाली

मौन बन
क्यूँ निरंतर घूमते हो
सच को चुपचुप में चुनते हो
जग में कैसी रीत निराली 
दुनिया है
नीति-मूल्यों से बिलकुल खाली
देना है
जग में कुछ कर्तव्य परायणता  का ज्ञान 
जग हो चला इससे 
कुछ बिलकुल अनजान
परिश्रम के मोती 
जब बिखरेंगे धरती पर
लहलहाएगी हरियाली 
इस धरती ,
इस पृथ्वी पर!!
                           प्रतिभा प्रसाद |

नदी

मैं नदी हूँ 
निरंतर बह रही हूँ 
प्राण देने को हिमगिरि से झर रही हूँ 
नित्य नए स्रोतों से
अलग-अलग नहरों में 
हूँ प्रवाहित 
रोकने का साहस
नहीं कोई कर पाता
प्राण देने की अपनी इच्छा 
हूँ निरंतर चलती 
पर युगों से ढोती मैं गंदगी 
अवश हो चली हूँ |
                            प्रतिभा प्रसाद |

शिवसेना

एक पाकिस्तानी घुमने गया अमेरिका 
एक ही टैक्सी के लिए जिससे गया भिड़
वह था एक हिन्दुस्तानी |
पाकिस्तानी गुस्से से तमतमाया 
दूसरी टैक्सी के लिए हाथ हिलाया 
टैक्सी में बैठ खूब भुनभुनाया,
हिन्दुस्तानी हाथ आ जाए तो कच्चा चबा जाऊं 
उन्हें उनकी औकात बता दूँ
चुटकियों में सकता हूँ मसल 
हिन्दुस्तानी की जलसेना , थलसेना और वायुसेना को
हिंदुस्तान है ही क्या चीज़ !
इतने में टैक्सी ड्राईवर पीछे घूमकर बोला 
अबे पाकिस्तानी !
पहले भारत की शिवसेना से तो निपट !
                                                            प्रतिभा प्रसाद |

याचक

दरवाज़े पर खड़ा था 
एक भिखारी
हाथ-पाँव सलामत 
एक बासी रोटी के लिए 
फैलाए था हाथ 
कहा- माँ जी काम की दुहाई मत देना 
यहाँ तो पढ़े - लिखों को नौकरी नहीं
मैं तो अनपढ़ हूँ , गंवार हूँ 
मन से लाचार हूँ
फिर भी काम के बाद 
रोटी मिलनी है तो 
ला दो कुदाल 
बाग़ तुम्हारे लगा दूंगा 
फूलों से सज़ा दूंगा 
पर भीख में देना मुझे 
एक विश्वास 
क्या भर पेट खिलाओगी खाना?
कई जगह काम किया हूँ 
यूँ ही भगा दिया गया हूँ 
यदि आतंकवादी बन जाऊं 
दो-चार को बम से उड़ा दूँ 
तब होगा बदन पर कपड़ा
खाने को रोटी 
नहीं कहीं होगा फैलाना हाथ 
मौज मस्ती करूँगा 
आराम से रहूँगा 
पर मेरी आत्मा है अभी जीवित 
राष्ट्रप्रेम है जोर मार रहा 
बेटा, भीख मांग लेना 
भूखों मर जाना 
पर देशप्रेम कभी न छोड़ना!
पर देशप्रेम कभी न छोड़ना!!
                                              प्रतिभा प्रसाद |

प्रश्न

सृजन के नाम पर 
बहकावे की गंध में
खो जाती है जिन्दगी 
एक यक्षप्रश्न तैरता है
तुम  हो कौन ?
स्वयं सृष्टीविधाता सृजनकर्ता 
या स्वयं अपने निर्माता 
सोचो नहीं पकती बात 
कोरी कच्ची हांड़ी
बात अधूरी रहती 
मंज़िल से कोसों दूर 
अँधेरी बदनुमा जिंदगी 
यक्षप्रश्न की तरह घूरती है तुम्हें
बहकावे की गंध से
तिलमिलाता मन
सत्य की राह की तलाश में
रह जाता है अधूरा
बेघरबार 
प्रलोभन पर लगा दो पहरा 
निकालो सच्चा भारतीय मन 
पसीने की गंध में कई सीढियाँ चढ़ 
आत्मविश्वास से भर जाओगे 
मुस्कुराओगे 
अगली पीढ़ी को मशाल थमाओगे
बहकावे की गंध से दूर 
सृजन का संसार 
स्वाभिमान मुस्कुराएगा 
सम्मान दिलाएगा 
बदनुमा जिंदगी से उन्हें निकाल लाएगा |
                                                             प्रतिभा प्रसाद |


पीढ़ी

अहंकार में जब झुमने लगा मन 
अम्बर पृथ्वी लगने लगे कम 
मन बल्लियों उछलता था
न जाने कहाँ-कहाँ के गोते लगाता था 
सामने कोई भी आ जाए
सब छोटा लगता था 
रावण का अहंकार सच्चा लगता था 
अचानक सब कुछ बदल गया 
मन ने दिल से पूछा 
क्या अहंकार महानाश का कारण है ?
दिल ने कहा -
सच को क्या प्रमाण की जरुरत है?
तब से मैंने
मन को वश में करने की 

कला सीख ली है 
अब भी मन झूमता है 
बल्लियों उछलता है 
पर उसमें अहंकार नहीं होता |
                                                प्रतिभा प्रसाद |

हम हिन्दुस्तानी

कारगिल का युद्ध हो
या सन बासठ की लड़ाई 
मरते हैं सारे हिन्दुस्तानी भाई 
तब न होता कोई 
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई
क्यों नहीं सीमाओं पर होते 
ऐसे सिपाही , भ्रष्ट नेता , बेईमान व्यापारी 
मुहल्ले का दादा 
चौक का गुण्डा
जो डरा धमकाकर 
माल खिलाकर 
युद्ध को 'फिक्स' कर लेते 
अपने देश के लिए 
अपने हुनर का कमाल दिखाते 
उनकी ज़मीन भी हड़प कर ले आते !
ऊपर से देवता अन्दर प्रपंच 
ऐसे हैं नेता टुच्चे सरपंच 
मदारी डुगडुगी बजाओ 
ऐसा नाच नचाओ 
सारों को हिन्दुस्तानी होने का पाठ पढ़ाओ
उन्हें समझाओ 
भ्रष्टता और बेईमानी से
छुटकारा दिलाओ 
भारत सोने की चिड़िया न सही
असली चिड़ियों का बसेरा तो बनाओ 
हम हैं हिन्दुस्तानी 
यह समझो और समझाओ |
                                             प्रतिभा प्रसाद |

उपाय

एक महाशय ने पूछा 
बाढ़ से बचने का कारगर उपाय 
मैंने बताया ,
नदियाँ गहरी कर दी जाएँ 
उन्होंने फरमाया ,
बहुत खर्चीला है |
दूसरा उपाय बताया ,
पेड़ लगवाए जाएँ 
उन्होंने फरमाया ,
समय लम्बा खिंच जाएगा 
मैंने खीझकर कहा ,
है एक आसान उपाय 
जो न तो है खर्चीला 
और न ही होगा उसमें समय का अपव्यय 
वे हुए परेशान 
मैंने बताया,
किसी प्रसिद्ध मंदिर में जाइए 
घंटा बजाइए 
प्रार्थना कीजिए
हे प्रभु पानी मत बरसना 
बाढ़ मत लाना 
तुम्हीं हो बाढ़ से बचाने का कारगर उपाय |
                                                                 प्रतिभा प्रसाद |

पहरा

हमारी हर अभिव्यक्ति पर 
है उनका सख्त पहरा 
पहरे में हो गई यदि कहीं चूक
तब भी मेरी संवेदना हो जाती है मूक 
उनके पहरे से होती है तकलीफ़
पर मैं हूँ उनके प्यार से वाकिफ़
वे मुझे कहीं खो न दें 
इसलिए हैं सख्त 
लेकिन निकाल नहीं पाते
मेरे लिए वक्त 
प्यार के लिए उनकी अभिव्यक्ति 
कहीं अन्दर है बंद 
इस वजह से बन नहीं पता 
प्यार का कोई छंद
वे अकुलाते हैं तड़पते हैं
रह जाते हैं खामोश 
फिर भी हमारा संसार 
चलता है कमोबेश !
                               प्रतिभा प्रसाद |

लुगाई

वे जब भी आते 
साथ में 'लुगाई पुराण' भी लाते  
ऐसी-ऐसी उपमाओं से
अपनी लुगाई को अलंकृत करते 
कि हम सब हँसे बिना नहीं रहते 
एक दिन उनकी लुगाई से मिलना हुआ 
सच का पर्दाफाश हुआ 
उनके हंसोड़पन का ज्ञान हुआ 
व्यवहारकुशल, सुन्दर , शालीन थी
उनकी लुगाई आवभगत में लीन थी
मैं अपनी सोच में विलीन थी
महिलाएं ही हास्य का आलम्बन क्यों ?
दुसरे दिन जब वे आए 
अपने लुगाई पुराण का ताज़ा अंक लाए
तभी मैंने उस लुगाई के
पति कि ताज़ा खबर सुनाई
सुन्दरता के विपरीत कुरूपता का पाठ पढ़ाया
वे शर्माए झल्लाए झेंपे 
कहा , दूसरों को कोई भी उपमा देना 
कितना है सरल 
जब बोझ अपने सिर आता है
असलियत दिखलाता है 
मन को रुलाता है
तब ये भाव हो जाता है विरल 
मैंने तन से ही नहीं 
मन से सुन्दर पत्नी का अपमान किया है
आज जब आपने दिखा दिया है आईना
हिम सी पीर से जड़वत हो गया हूँ मैं 
मेरी लुगाई तब भी मुस्कुराती थी 
अब भी मुस्कुराती है |
अब समझ आया 
इन सब से परे निर्विकार होना 
केवल मुस्कुराना....दिल में मुस्कुराना 
भी है एक कला 
ज़िंदादिली की मिसाल 
जो सीख मुझे लुगाई ने दी है 
उसे याद रखूंगा 
अब किसी को
मिथ्या आलम्बन नहीं बनाऊंगा 
सच के लिए सच ही लिखूंगा |
                                                प्रतिभा प्रसाद |

आशा

अंतर्मन में जब हो पीड़ा 
जग बैरी हो जाता है 
शैतान है अन्दर 
दर्द का कोहरा 
जीवन धूमिल बनाता है
आशा में विश्वास छुपा है
गंध ख़ुशी की आती है
तिमिर छेद कर अन्दर बिजली 
हर्ष का दमन थाम लिया 
क्षणिक भले हो ख़ुशी तुम्हारी 
आनंद असीम दे जाती है
मन की आशा डोर सम बन 
सौरभ सम हो जाती है|
                                      प्रतिभा प्रसाद |

मन

तुझसे ही तुझको अब
पाने का मन करता है
बच्चों के संग मिलकर अब
गाने का मन करता है
जो भूल गए तुम सपनों को 
उन्हें याद दिलाने का मन करता है
प्रलय की चिंता से घबरा 
जो घरौंदे तुमने छोड़ दिए 
अब नई चेतना से
उन्हें सजाने का मन करता है
नियंत्रण में फंसकर उलझती रही हूँ 
नियंत्रण से बाहर निमंत्रण पर 
अब तो जीने का मन करता है
                                                प्रतिभा प्रसाद |

ब्लैंक चेक

बेटा मेरा ब्लैंक  चेक है,
जब चाहे उसे भंजा लूँगी
सुन्दर सी दुल्हनिया लाकर 
घर उसका बसा दूँगी
बेटे ने तब पूछा मुझसे ,
ब्लैंक  चेक जब भंजा तुम्हारा 
क्या-क्या तुमको मिल पाया ,
मेरे लिए क्या-क्या है लाई 
यह भी तो बतला मुझको,
शील-गुण की भरी पिटारी 
सुन्दर बोली , सरल मनभावन ,
ऐसी सुन्दर दुल्हनिया लाई 
जीवन भर तेरा साथ निभाए ,
वंशबेल आगे बढ़ जाए 
झुन-झुनकर जब चलकर आए,
सूने घर को चमन बनाए
है जीवन की तेरी संगिनी 
ससुर की दुलारी सास की सलोनी 
पति की प्राणप्यारी देवर की भाभी 
है वह घर की कुलवधू 
प्रतिभा है सचमुच गुणों की
और है वह मेरी अभिलाषा की प्रतिमा |
                                                          प्रतिभा प्रसाद |

ख़्वाब

महक जाने को दिल करता 
चहककर जो तुम आते 
दुनिया मेरी बदल जाती 
ख़्वाब पूरा हो जाता 
सपनों में खो जाना 
नहीं चाहते मैं और तुम 
घर हो अपना-अपना सा 
क्यारी में हो बेली-चमेली 
गुलाबों की कतारों से
महक इतनी आती हो
की खुशबू की मदहोशी में 
हम दोनों ही नहा जाएँ 
गुलाबी रंग तेरा ले,
गुलाबी होंठ मेरे ले 
नई कली हम दोनों की ,
तेरी मेरी जैसी हो 
फिर गूंजेगा आशियाँ अपना 
किलकारियों की तानों पे
हम सब नाचेंगे ,
खूब गाने गाएँगे
लोरियां अपनी धुन बजाएगी 
चांदनी से नहाएगी 
गुलाबों की महक में
फिर हम दोनों भींग जाएँगे |
                                            प्रतिभा प्रसाद |

किनारा

तेरी यातनाओं से 
कैसे निकल पाऊं मैं?
तुमने मुझे तोड़ा है
झकझोरा है
घाव ऐसे दे दिए 
टीस-टीसकर रिसता है
बूंद-बूंदकर खून टपकता है
इन बहती बूंदों को छुपाऊं कैसे ?
तुम्हारे मान का पलड़ा 
छलनाओं से भरा 
औरों की ख़ुशी पलड़े पर देती जाती हो
तुम्हारा मान उठता जाता है
एक दिन जब पलड़ा गिर जाएगा 
तेरे पापों से भर जाएगा 
तुम्हारे मान का क्या होगा ?
तुम्हारे गान का क्या होगा?
मेरे आंसुओं को
आहों को
तुम तौलना सीखो 
कहीं भारी पड़ गया छलना
भेद तेरा खोल देगा 
तो कहाँ मुँह छिपाओगी?
कहाँ फिर तुम जाओगी ?
कैसे मान बचाओगी ?
तेरी यातनाओं से
मैं भी न निकल पाई 
अपने घावों को न सुखा पाई 
तिल-तिलकर जलती हूँ 
फिर भी रौशनी करती हूँ 
शायद किसी भटके मुसाफिर को 
नई राह मिल जाए 
कोई मुकाम मिल जाए 
मुझे तुम्हारे सितम से
कोई किनारा मिल जाए !!
                                         प्रतिभा प्रसाद |

कुलवधू

कपड़ों और गहनों से लाद
जिम्मेदारी की नई चादर में लपेट 
महत्वाकांक्षाओं के जाल में फाँस
लाई जाती है जब बहू
कभी गिरती , कभी संभलती
जिम्मेदारी की चादर में उलझ-उलझ 
हो जाती है जब परेशान
तब मायके का उलाहना दे
शादी में हुई ऊँच-नीच को गिना 
बहू को किया जाता है शर्मिन्दा
मनोबल को तोड़कर 
धीरज को निचोड़कर 
रक्त को चूसकर 
कभी जला दी जाती है
तो कभी गुलामी की जंजीर में बाँधकर
उसे नकेल पहना दी जाती है
जो कर देती है इससे विद्रोह 
कहलाती है कुलकलंकिनी ,
मर्यादाओं को तोड़ती,
पथभ्रष्टा, मनमौजी ,
परिवार और पति से तिरस्कृत 
अपने भाग्य को रोती
और जो लेती है , बुद्धि से काम 
ईट का जवाब पत्थर से देने का मन बनाती
पर खामोश रह जाती 
आनेवाला प्रहार हँस-हँसकर सहती
अपने कर्तव्य में लीन
सास-ससुर, परिवार की सेवा में विलीन,
बैठाती है परिवार में सामंजस्य ,
कहलाती है कुलवधू 
पाती है स्नेह 
संघर्ष में जोड़ती है परिवार 
होती है परिवार की रानी !
पति की महारानी !!
                               प्रतिभा प्रसाद |





सुख

सागर की लहरों को देखो 
कुछ सीखो कुछ समझो तुम 
बार-बार वे आती हैं
फिर सागर में ही समाती हैं
किनारों को छू-छूकर
अपना हक़ जतलाती हैं
सौग़ात में किनारे को
ढेरों सीपियाँ दे जाती हैं
मोतियों से भर आँचल को
लौट समुद्र में जाती हैं
नहीं कुछ वे किनारे से लेतीं 
जीवन की सीख हमें देती हैं
देने में जो सुख मिलता है
लेने में वह किसे मिला !
                                     प्रतिभा प्रसाद |
 

जीवन को रंगीन बनाए

झूमकर निकले थे होली खूब मनाएंगे 
रंग पिचकारी दे देकर जीवन रंगीन बनायेंगे 
मन रंग देंगे तन रंग देंगे 
बसंत को भी खूब भजेंगे 
होलिका में हिरण्यकशिपु को जलाएंगे 
प्रहलाद को होली खूब खिलाएंगे |
बच्चे-बूढ़े सब गाएँगे |
मन रंग लेंगे , तन रंग लेंगे |
ढोल-मंजीरा बजा-बजाकर 
जन-जन को जगा-जगाकर 
रंग-गुलाल लगा-लगाकर होली खूब गाएँगे 
मुन्ना , गोलू ,अम्मा , भैया - सब ने 'गोला ' खाया है |
पुआ , पूरी के संग सबने प्यार खूब बरसाया है;
तुम भी आना हम भी आए
ऐसी होली बार-बार आए 
तुम्हें हँसाए, हमें हँसाए
रंग और गुलाल लगाए
सब मिलकर हम होली गाए
जीवन को रंगीन बनाए |
                                       प्रतिभा प्रसाद |

पत्थर : दो

युद्ध की आंधियाँ त्रासदी बन बह चलीं 
विश्व मौन मूरत बना रहा अविचलित 
हूक अन्दर उठ रही बंद मुट्ठी खुल चली 
हाथ में पत्थर उठा प्रतिरोध करने लगी 
                                                            प्रतिभा प्रसाद |

पत्थर : एक

आँखों में लोर लिये एक बच्चा भागता 
बासंती भोर में टुकुर-टुकुर ताकता 
फूलों से भरे हाथ 
अब पत्थर तलाशता  
                                 प्रतिभा  प्रसाद  |

माँ

आधी रात को हुई दरवाज़े पर दस्तक 
थी पूजा की रात 
इसलिए दरवाज़ा खोली बेहिचक 
सामने खड़ी थी दिव्य सुन्दरी 
साधारण वेशभूषा में
मैं कुछ कहती या पूछती , वह अन्दर आई 
मैं दरवाज़ा बंद कर पलटी
तब तक सामने चौकी पर
वह निद्रा में निमग्न थी
मैं हतप्रभ सी वहीँ कुर्सी डाल बैठ गई |
फिर हथेली पर सिर रखकर सो गई ;
जब आँख खुली , दरवाज़ा वैसे ही बंद था;
महिला का कहीं अता-पता नहीं था ;
मैं सोच में डूब गई |
थीं कहीं वह दिव्यशक्ति ,
जो दरवाज़ा खोले बगैर बाहर जा सकती थी
फिर दस्तक देकर 
अन्दर आने की क्या जरूरत थी ?
सारा दिन इसी उधेड़बुन में बीत गया ;
दूसरी रात फिर वही दस्तक 
और वही दिव्य सुंदरी 
वह नवमी की रात थी |
मैं प्रश्न करने को बेताब थी,
दिव्य शक्ति मुस्कुराई ,
मेरी मंशा समझ पाई 
कहा , तुम्हारे लिए सीख है |
सौभाग्य दस्तक देकर आता है,
चुपचाप चला जाता है |
दुर्भाग्य दबे पाँव आता है,
दबे पाँव जाता है ;
मैं देवी जगतजननी हूँ ;
पंडाल के शोर-शराबे से
दिमाग भन्ना रहा है;
रोशनी से आँखें चुंधियाँ रही हैं,
गलत पात्र को वरदान न दे दूँ ,
इसलिए शांति से विश्राम को
तुम्हारे घर आई हूँ ,
कल चली जाऊँगी,
तुम्हें कुछ माँगना हो तो मांग लो ;
मैं कुछ समझ पाती तभी मेरी जुबान हिली 
मुख से निकला 
माँ अपने हृदय में स्थान दो
शांति दो पवित्र मन दो
माँ का हाथ उठा ,
तथास्तु कहा और अन्तर्धान हो गई |
                                                           प्रतिभा प्रसाद |

तीन मित्र

बात है तीस साल पुरानी
तब अंग्रेजी थी थोड़ी अनजानी 
मैट्रिक में जब हम हुए पास 
मम्मी से मिली एक आस 
जाने देगी वे हमें सिनेमा फ्री पास 
कर्पूरी डिवीजन से पास होने का दुःख 
उन्हें सालता रहा लगातार 
वक्त कई मार थी
बार-बार
लगातार 
फेल होने का क्रम 
अब रह गया था सिर्फ भ्रम 
हम तीन मित्र मचलते गीत गाते 
जा रहे थे सड़क उस पार 
रास्ते में मील गए एक सरदार 
थी उन्हें भी पिक्चर कई टिकट कटानी
उन्होंने हम तीनों को बहलाया 
बार बार पोल्हाया 
हम भी गए पिघल 
उनकी भी टिकट कटाई 
साथ ही पिक्चर दिखाई 
समझ न आ रहा था हम सबों को कुछ
थी क्योंकि वह अंग्रेजी फिल्म 
सरदार जी गुनगुना रहे थे
मस्ती में झूम रहे थे
कभी-कभी उछल पड़ते 
उन्हें देखकर हमने भी
एक बार उछलना जरूरी समझा 
वर्ना हमारी पोल उनके सामने खुलनी थी
बेड़ा ग़र्क होना था
अगले सीन में जब हीरो पीटा जा रहा था
हीरोइन को विलेन धकिया रहा था 
हम बारी-बारी उछले तालियाँ बजाई
ये अलग बात थी
कि हाँल में सिर्फ हमारी ही ताली गूंजी 
सरदारजी ने हम तीनों को घुर-घुर कर देखा 
पिक्चर कि समाप्ति पर
उन्होंने हम तीनों को पकड़ा 
एक-एक को बारी-बारी से बुलाया 
फैन्टा पिलाया और पिक्चर की कहानी सुनी
हम तीनों हँसते हुए घर लौटे 
नाहक सरदारजी से डर रहे थे 
वे ख़ुद कहाँ पिक्चर समझ रहे थे 
यदि समझते ,
तो क्या बारी-बारी हम तीनों से कहानी सुनते !
अगले महीने कॉलेज में क्लास शुरू हुई 
अंग्रेजी के पीरियड में
वही सरदारजी क्लास लेने पहुंचे 
पहली बेंच पर हम तीनों विराजमान थे
कहना न होगा हम तीनों की क्या हालत थी!
क्लास से निकलकर 
सर(दार) ने बताया 
कहानी कुछ चौथी ही थी !
                                       प्रतिभा प्रसाद |
 





एक आतंकवादी की मनोदशा

वह बंदूक लिये खड़ा था 
लगातार किसी न किसी को
धराशायी कर रहा था
छूटते खून के फव्वारे देख 
उसका मन विचलित होने लगा था
शाम को माँ के हाथों की रोटी की गंध 
उसके नथुनों में समाने लगी थी 
माँ की याद में आँखों नम हो रही थीं 
निशाना चूक गया था 
अपना ही एक साथी खेत रह गया था 
उसकी निर्निमेष आँखें प्रश्न कर रही थीं 
अपने मारे जाने का कारण पूछ रही थीं 
अब तो कई जोड़ी आँखें 
अपने प्रश्न के साथ-साथ 
उसके आगे-पीछे घुमने लगी थीं 
वह लगातार भाग रहा था 
दुनिया के हर कोने में घूमा
पर इन आँखों से पीछा छुड़ाना तो दूर
अब शब्द प्रश्न बन कानों में गूंजने लगे 
अब किसी मुकाम पर वह कॉप जाता है
स्वयं बंदूक से प्रश्न करता है
यदि आतंकवाद का रास्ता सही है
तो क्यूँ नहीं वह कलम के जोर से है चलता 
जिससे घायल होने पर किसी का रक्त नहीं बहता 
कोई मर गया तो, लाशों का ढेर नहीं लगता 
कलम कई मार से रोज़ मरते हैं
उफ़ तक नहीं करते 
कलम का जवाब कलम से देते हैं
त्योहारों पर गले मिलते हैं
एक दूसरे का हाल पूछते हैं
कोई बीमार हो जाए 
तो उसकी सेवा करते हैं
कोई मर जाए 
तो मंज़िल पर जाते हैं
आतंकवादी दुनिया में
मरनेवालों कई कोई मंज़िल नहीं होती
मरनेवाला गुमनाम रहता है
मारनेवाला भी 
यदि प्रतिघात में मर जाए तो
कोई रोनेवाला नहीं होता
यहाँ न तो मरने में मज़ा है
और न मारने में
तो फिर क्यूँ आतंकवादी बनूँ ?
होता यदि मैं कलम का सिपाही
सर्वत्र पूजा जाता 
बलिदान में गिना जाता 
मौत पर भी सलामी तो पाता
अब गुमनाम जीऊंगा
गुमनाम ही मरूँगा 
जाते-जाते एक सन्देश देता हूँ
हे दुनिया वालों !
कभी आतंकवादी मत बनना 
न जीने कई ख़ुशी होगी
न मरने का ग़म
यूँ ही रह जाओगे 
जैसे त्रिशंकु जी रहे थे कभी !
                                               प्रतिभा प्रसाद |

मन क्यूँ नहीं भींगता

आज हमें फिर होली की याद आई है      
पतझड़ के बाद फिर जीवन में बहार आई है 
लाई है संग अपने सपने और रंग 
रिश्तों की खुशबू अपनों की गंध 
फूलों की चादर में लिपटा बसंत 
अवगुंठन से बाहर निकलने का मन 
मुट्ठी भर गुलाल रंग दे मन 
तन भींगता बार-बार ख़ाली है मन 
आज हमें फिर याद आता है बचपन 
बचपन की होली और होली का रंग 
मन को भिंगोता था, तन को भिंगोता था 
दिन भर के हुल्लड़ में रमता था मन 
बाबूजी की डांट और अम्मा का दुलार 
बुआ और मौसी और दादी का प्यार 
दीदी की झिड़की और चाची का स्नेह 
दादा का गुस्सा और चाचा की मार
फिर भी मन भींगता था रंगों के संग 
अब भी तन मन भींगता है होली के संग
मन क्यूँ नहीं भींगता यही है प्रश्न !
                                                    प्रतिभा प्रसाद |

इंसाफ

जब उनसे हुई एक भारी भूल 
उन्होंने तब चुभाया मुझे शूल 
वे साफ़ बच जाएँगे था उन्हें भ्रम 
गलतियों का उनका चलता रहा क्रम
एक भूल से बचने को 
दुनिया में शान से सजने को 
लगाते रहे गलतियों का अम्बार
ऐसा होता रहा उनसे बारम्बार 
लोग थे बेताब 
कब उतरेगा उनका नक़ाब
समय का था इंतज़ार
जब जाग जाए उनका ज़मीर
औरत होने की ख़ता हम उठाते रहे हैं
इसका खामियाज़ा भी हम भरते रहे हैं
उनके हद से गुज़र जाने के बाद 
हमें झंडा इंसाफ का उठाना पड़ा है
कारवां बनेगा है इसका इंतज़ार 
आप भी हो जाइए तैयार 
यदि बाक़ी है थोड़ी सी भी ईमानदारी 
तो चलिए मिलकर साथ 
हमें घूँघट उठाना है बगुले के चेहरे से
मानसरोवर के इस नकली राजहंस का
कल्याणार्थ उठाना गया कदम 
भर देगा हम सब में भरपूर दम 
होगा यह एक मील का पत्थर 
जो होगा सबके लिए एक प्रश्नोत्तर 
औरत होने के बावजूद हम दिखा देंगे 
नकली राजहंस का पर्दा हम उठा देंगे |
                                                             प्रतिभा प्रसाद |

मंद पवन का झोंका

पहली बार प्यार
चलकर दिल तक आया है 
मुझको नहलाया है,
कुछ ख़ास अहसास कराया है
मन डूब-डूब जाता है
उसमें नहाना है
फिर पुलक-पुलक कर
तट पर छलक-छलक जाता है
दूर से ही सबको 
इसका अहसास करता है
ऐ मालिक के बन्दे ! नयन बंद तू कर ले 
कहीं छलक-छलक कर तुम से
दूर न हो जाए 
इस अहसास को तुम तो
अन्दर ही कैद कर लो
गुमसुम सा रहना छोड़ो 
अंक आबाद कर लो
बदलेगी तेरी दुनिया 
तुम दुनिया को बदलोगे
अहसास प्यार अनूठा 
है मंद पवन का झोंका !!
                                        प्रतिभा प्रसाद |

नमन

खिलते पलाश को देखकर 
मन विचलित सा हो जाता है
यह सोचकर 
की धरती क्यूँ दहकती है?
प्रकृति क्यूँ बहकती है?
क्या वह मनुष्य के चरण देखकर 
अपना चलन बदलती है
ऐसा लगता है मानो
प्रकृति का हृदय धधक रहा 
क्यूँ वह यूँ जलता है?
जलकर नए प्राणियों को जीवन देता है
मुझे भी वह कोई ऐसा गुर सिखा जाती
मैं भी जलूं 
जलकर दधीचि की तरह 
अस्थियों का दान करूँ 
कर्ण की परंपरा का पालन करूँ
अंग प्रदेश का मान करूँ
इस धरती को प्रणाम करूँ !!
                                             प्रतिभा प्रसाद |

चुभन

क्यूँ बात किसी की दिल को चुभती है?
हूँ निर्विकार दर्द से
कुछ ऐसा करना है
कान बंद कर लूँ,
ऐसा हो नहीं सकता 
चुपचाप सी रह लूँ ,
ऐसा हो नहीं सकता 
बात बुरी क्यूँ लगती,
यह सोचा करती हूँ
मन ही मन में इसे ख़ूब गुनती हूँ
दिल कहता है तुम छोड़ो 
ये मेरी बात है
दिल के दरवाज़े मेरे 
में कैसे बंद कर लूँ ?
काँटों को दिल को
कैसे छूने दूँ ?
लहूलुहान दिल मेरा 
मैं कैसे देखूंगी ?
इसे बचाकर रखना 
जरूरत है मेरी
मैं जिंदा हूँ इससे ,
यह मुझेमें जिंदा है
है प्रार्थना तुमसे,
कांटे समेट लो अपने 
मुझे खुलकर जीने दो !!
                                      प्रतिभा प्रसाद | 

हलाहल

किसने अरमानों को रौंदा 
कौन रुला गया मुझको 
कौन दे गया पात्र गरल का
याद इसे जब करती हूँ 
अंतर्मन की पीड़ा से तो
जाग सिसकियाँ भरती हूँ
अपनेपन का बोध कराकर ,
पात्र गरल का पिलवाया 
पीड़ा में आनन्द कहाँ है?
आकर तुम मुझ से पूछो
गरल पिलाता हो जब अपना 
जलने में फिर भय कैसा ?
हे सखी ! तुम मुझसे पूछो 
अपनेपन की परिभाषा 
दुनिया बदल गई है अब तो
नहीं कोई तेरा अपना
अपनेपन का बोध तुम्हें तो
हलाहल पिलवायेगा
छोड़ अकेला तुम्हें सड़क पर 
स्वयं मंजिल पा जाएगा |
                                        प्रतिभा प्रसाद |

नया भारत बनाना है

आओ फिर मिलकर एक बार 
भारत को सोने की चिड़ियाँ  बनाना है 
एक बार फिर वन वनिता को
उसके आँगन पहुंचना है
एक बार फिर मन सरिता में कोमल भाव जगाना है
भावनाओं की नौका में चढ़ सिन्धु पार कर जाना है
बिछुडों को गले लगाना है
पतितों को भी तो उठाना है
नेताओं में फिर एक बार तो सेवाभाव जगाना है
अपने अन्दर के कलुष को आंसू से धोते जाना है
पीड़ा में आनंद का अनुभव 
भय नहीं जिसको जलने में
ऐसी फौज बनाना है
घर के अन्दर के दुश्मन में
प्रेमभाव जगाना है
टूट रही जो अर्थव्यवस्था 
सबको सुमार्ग पर लाना है
फिर एक बार मिलकर 
नया भारत बनाना है !!
                                   प्रतिभा प्रसाद |

प्रवासी पुत्र

 प्रवासी पुत्र के पास 
आया माँ का एक सन्देश 
बेटे भरनी है फ्लैट की किस्त 
भेज देना अपनी प्यार भरी जिस्त
माँ का जब जब सन्देश आता है 
बेटे का मन मचल मचल जाता है
बचपन की कई खट्टी-मीठी यादें 
याद दिला जाती है बहुत सारी बातें 
क्षण में माँ के पास पहुँच जाता है मन 
मचल उठता है तन 
मन में जब जब चलता है कई विमर्श 
तब तब मिलता है पत्नी का स्नेह भरा स्पर्श 
पत्नी माँ बहन बन मन को सहला जाती है
माँ के आंचल की जगह 
अपने रुमाल से मुंह पोंछ जाती है
मजबूरी है उसकी जींस में आँचल नहीं पाती है
माँ का आंचल तो मिलता है भारत में
जो बच्चे के सारे दर्द को
अपने में समेट लेता है
बिन माँ के बच्चे अपना दर्द स्वयं ढो़ते हैं
माँ के दुलार भरे स्पर्श की जगह 
कहीं प्लेंटे धोते हैं
मन में आ जाए कहीं ख़रास 
तो मिलता है कभी क्रेश तो कभी दूरदर्शन की मिठास 
जीवन की थपेड़े खाता
माँ-पिता की कमाई में
रह जाता है वह अधुरा 
पिता के मन में रह जाती है टीस
उन्मुक्त गगन में विचरने वाला बचपन 
खट्टी-मीठी अमियों को तोड़ने का सुख 
गलतियों पर पिता की डांट से बचाता 
माँ का आँचल 
सब कुछ खो जाता है 
चंद डाँलर की खनक में
झोपड़ी वन से महल तक घुमने वाला बचपन 
जब बित्ते भर ज़मीन में
एक अदद लाडले को पालता 
तब दादी का कलेजा है सालता 
काश मेरी गोद में वह खेलता 
ले जाता मेरा प्यार दुलार 
उसी आँचल में समा जाने को
जब आ जाता है प्रवासी लाडला 
वर्षों के वंचित प्यार से
मरुभूमि बने हृदय को
है वह भिंगोता 
पोता खड़ा दूर से
यह सब है देखता 
भारत के इस प्यार में हो जाता है गुम
बच्चा तब चकरा है जाता 
जब भारत की भूमि पर पैर रखते ही
वही माँ , बच्चे को समेट लेती है
अपने आंचल में
बच्चा सिमट सिमट जाता है
प्यार समेट नहीं पाता है
पूछता है प्यार का यह तरीका 
क्यों नहीं तुम विदेश में अपना पाती हो
दफ्तर में मरती हो, खपती हो
शाम को चेहरे को रगड़ रगड़ के धोती हो
कैसी कैसी निगाहें 
चेहरे पर अटकी अटकी महसूस करती हो
संतान के प्यार से रह जाती हो वंचित 
क्यों नहीं कर पाती 
अपनी ममता में मुझ में संचित 
डाँलर जीवन का प्रवाह भर है
हम सबों को दौड़ाता है
इधर से उधर तक
हमें अपने ज़मीन से
काट देने की
है यह सोची समझी साजिश 
क्यों नहीं समझ पाती 
जीवन हो रही डालर से पालिश 
इसी में आ जाता है बड़ा भाई 
लिये मन में एक ख्वाइश 
सुना जाता है भाभी की फरमाइश 
माँ जब लुटाने लगती है स्नेह धारा
बेटा बहु जब डुबने लगते हैं 
ममतामयी धारा में
तभी मज़धार में
जेठानी पकड़ लेती है बाह 
सुनाने लगती है अपनी आह 
तुम जिस ममतामयी धारा में बह रही हो
उसमें है आधा मेरा हिस्सा 
यदि नहीं गई तू यहाँ से 
तो ये हो जाएगा यह पूरा किस्सा 
इतने में आ जाता है देवर 
सुनता है भाभी की बात 
टूट जाती है उसकी आस 
कहता है, भाभी तुम जिस ममता को किस्सा बना रही हो
वर्षों से माँ तो तुम पर ही लुटा रही हैं
मैंने क्या कभी की है कोई शिकायत 
भाभी तुम माँ-पिता का ध्यान रखती हो
इसीलिए सारा प्यार भी तुम ही पाती हो
मुझे तो चाहिए तुम्हारा भी सारा प्यार 
माँ बीच में ही बोल पड़ती है
क्या कोई सुनेगा मेरी भी
माँ के लिए है सभी संतान बराबर 
जिस बेटे ने वर्षों से न हो माँ छुआ 
क्या वह माँ का आलिंगन नहीं करेगा 
इससे क्या आसमान टूट पड़ेगा ?
जिस लाल को देखने को ,
वर्षों तरसी हैं आँखें 
उसे तृप्त कर लेने दो 
लगाओ लांछन अधिक प्यार लुटाने का
पर हिसाब करना बराबर 
जो मेरे पास है रहा 
क्षण-क्षण , पल-पल, स्नेह में है पला 
इस दूध मुहें लाल को
छोटे उम्र से ही
मैंने अपने से है अलग किया
मेरे ऊपर क़र्ज़ है उसकी ममता का
मुझे इस क़र्ज़ को उतारने दो
भरपूर ममता लुटाने दो
इस नई नवेली बहु ने
कहाँ है मुझे जाना 
पोते ने तो पहली बार है देखा 
ईर्ष्या को वाशिंग मशीन में धुल जाने दो
भारत की परम्परा को तन जाने दो
एक माँ को बेटे से मिल जाने दो 
एक माँ को बेटे से मिल जाने दो  |
                                                    प्रतिभा प्रसाद |







उद्देश्य

दिशा-दिशा का शोर यहाँ है
मंज़िल भूला-बिसरा है
शिक्षा-दीक्षा को भूल-भालकर
शहर-शहर की भटकन है
पहले तय कर लो
किस मंज़िल जाना चाह रहे 
मंज़िल पाना ही उद्देश्य हो
राह स्वयं पा जाओगे 
मत भूलो तुम शक्ति अपनी 
नया कोई इतिहास रचो 
जो तुमसे आज भाग रहे हैं
कल गले लगाने आएँगे
अपनी ग़लती पर पछताते तो
वह भी आगे बढ़ जाते 
चुन लिया जब राहों का कांटा
फूल स्वयं पा जाओगे 
फूलों से आँचल भरकर 
जग को महकाओगे !!
                                       प्रतिभा प्रसाद |

प्रभु की महिमा

भक्त ने प्रभु से कहा ,
प्रभु! आपने गंगा को
धरती पर लाने के लिए 
भागीरथ के परिवार के
वारे-न्यारे कर दिए 
गंगा ने उन्हें तार दिया 
यदि आज की बात होती 
तो गंगा को धरती पर 
लाने के टेंडर से करोड़ों कमाता 
पर अब क्या करूँ ?
कोई और उपाय बताइए 
मुझे भी धन्य कर जाइए !
प्रभु ने हंसकर कहा ,
मुर्ख ! मैं भक्त के दिल में बसता हूँ 
उसकी इच्छा के लिए
स्वयं को समर्पित करता हूँ
तब न होते थे टेंडर , न घूसखोरी 
ये तो तुम्हारी कल्पना है
मुझे क्यों घसीट रहे हो?
हृदय से मेरा ध्यान करो 
मेरी भक्ति में मन लगाओ 
लक्ष्मी की लालसा छोड़ो 
लक्ष्मी धरी रह जाएगी
तुम्हारे बंधु-बांधवों को,
आपस में लडवाएगी 
स्वयं में बैठे-बैठे दुखी हुआ करोगे 
मुझे भी कोसा करोगे 
हे भक्त ! मान जाओ 
मुझे इस दुविधा से निकालो   
तुम्हारे कल्याण की आड़ में 
तुम्हारा अहित कर जाऊँगा 
कलियुग में मेरे प्रति 
लोगों का विश्वास लड़खड़ाएगा
मैं अपने स्वर्ग में किसे क्या जवाब दूंगा 
हे मानव ! मानव को प्यार कर
मेरी भक्ति कर 
लक्ष्मी का लोभ त्याग दे, मैं प्रसन्न हो जाऊँगा 
तुम्हें आजीवन भक्ति का वरदान दे जाऊँगा 
इस दुविधा से निकल आऊंगा 
अब भक्त भी दुविधा में पड़ गया 
कुटुंब के कल्याण की जगह विनाश हो जाएगा 
वह कैसे देख पाएगा?
पर विष्णु जी की पत्नी को लग गया यह बुरा 
उन्होंने सोचा , वैसे तो दुनिया में 
मेरी महिमा कम हो जायेगी
लोग आपस में न लड़ें तो
स्वर्ग का बाक़ी प्रत्येक विभाग ख़ाली रह जाएगा 
मानव के प्रति उदार प्रभु की निष्टा भंग करनी होगी
इन्सान को लक्ष्मी के दर्शन कराने होंगे 
भौतिक सुख-सुविधा भेंट करानी होगी
उन्हें दिग्भ्रमित करने में ही है अपनी भलाई 
वे आपस में लड़ते रहेंगे 
इंद्र भी सुरक्षित रहेंगे 
हम भी चैन आराम से रास-रंग में डूबे रहेंगे 
सो, उन्होंने समझाया 
कहा, प्रभु क्यों अपना भेजा भिड़ाते हो
भक्त जो मांगता है, क्यूँ नहीं दे जाते हो?
नाहक समय बर्बाद करते हो
अन्तर्यामी प्रभु ने सब जान लिया 
मन ही मन लक्ष्मी की मंशा को पहचान लिया 
मुस्कुराए और कहा, तुम मेरी अर्धांगिनी हो
मुझे ठीक पहचानती हो
भक्त को लक्ष्मी के दर्शन जरुर कराऊंगा
तुम्हारा कहना मानूंगा 
न माना तो स्वर्ग में कहाँ टिक पाऊंगा 
तब स्वर्ग , स्वर्ग न रह जाएगा 
पृथ्वी कहलाएगा
सो हे प्रिये ! तुम्हारी मंशा पूरी होगी |
'तथास्तु' कहा 
और अपनी प्रिया के संग अंतर्धान हो गए !!
                                                                प्रतिभा प्रसाद |

सहनशक्ति

देखा एक छोटा-सा बच्चा 
गली-गली में घूम रहा था 
जाने क्या क्या ढूंढ़ रहा था ! 
इधर-उधर वह जाता था 
फिर घूमकर आता था 
कुछ सयाने लोग खड़े थे 
उसको ऐसे देख रहे थे 
कुछ आते, कुछ जाते थे 
बच्चा भी था अड़ा हुआ 
जाने क्यूँ था खड़ा हुआ 
अब बच्चा था हाथ पसारे
सब से कुछ कुछ मांग रहा था 
खड़े लोग सब जाने लगे 
बच्चे से कतराने लगे 
मैंने पूछा , बात हुई क्या ?
जाते हो तो कुछ पैसे दे दो 
बच्चे की मज़बूरी समझो 
हंसकर बोले, मैडम समझो 
बच्चे को बच्चा मत मानो
मांग रहा क्या यह तो जानो 
कहाँ से लाऊं शर्म हया मैं ?
ईमानदारी और देशप्रेम को
लाकर उसकी झोली में डालूं 
यहाँ सब बेशर्म खड़े हैं
भ्रष्टाचार रग-रग में फैला 
बच्चा जो कुछ मांग रहा है
कलियुग में वह नहीं है मिलता 
शर्म हया जब नहीं है मुझमें 
उसकी झोली में कहाँ से डालूं 
मांग रहा वह देशप्रेम, ईमानदारी
शर्म, हया और सहनशक्ति !!
                                              प्रतिभा प्रसाद |
 

तलाश

कुछ जोड़ी नम आँखें और ख़ाली हाथ 
तलाश रहे थे किसी की मदद का साथ 
हफ्तों , महीनों गुज़र गए 
इंतज़ार में सब ठहर गए 
आश्वासनों का पुलिंदा 
और कुछ सरकारी लोग
इधर का माल उधर 
क्या कर पाएँगे भोग 
दो पथिक अनजाने से मिले तब अनायास 
मन लालायित था करने को कुछ प्रयास 
अब दो से चार हाथ ,
थे साथ दो मन 
मन में अडिग विश्वास था,
थे साथ में तन 
बाढ़ में जो घर बहे ,
भूकंप में घर ढहे 
वह सब तुम पा जाओगे ,
मन यह सबसे कहे 
चार हाथ से दस हुए ,
दस से हुए बीस
एक आंधी चल पड़ी ,
बुझने लगी मन की टीस
एक आस की मशाल थी,
दूजा था विश्वास 
घर पर घर बन चले ,
रंग लाया प्रयास 
तुम भी आज़मा कर देख लो, 
लो हाथ मशाल 
कदमों में झुक जाएगा 
प्रेम बन विशाल !!
                                        प्रतिभा प्रसाद |

बार-बार

मुझसे झूठ बोल जाता था 
कोई बार-बार 
था उसकी आँखों में एक सवाल 
जो झलकता था बार-बार 
वह अपने को कम पाता था बार-बार 
डिग्री में, संपदा में, रूप में 
झेंपता था बार-बार 
कार्यकुशलता ,व्यवहार, तहज़ीब में भी 
ओछा हो जाता था बार-बार
मेरे सामने आने में झिझकता था बार-बार 
इसीलिए बहाने बनाता था बार-बार 
धीरे-धीरे अपनी तारीफ़ों के
पुल  बांधने लगा बार-बार
अपनी कमाई को बढ़ा-चढ़ाकर
बताने लगा बार-बार
अपनी साधारण सी बातों की
तारीफ़ करने लगा बार-बार 
अपने अमीर रिश्तेदारों को
गिनाने लगा बार-बार
जब हों पाकेट में दस रूपये 
तब कहता 'सौ हैं ' बार-बार 
मैंने सोचा उन्हें कुंठा से 
निकालना होगा एक बार 
फिर वे अच्छे होंगे हर बार 
मैं हंसकर उनकी बातें सुनती बार-बार 
उनकी कमी को ढँकने लगी बार-बार 
उनके व्यवहारों की तारीफ़ करने लगी बार-बार 
उनकी सुन्दरता को उभारने लगी बार-बार 
उनके दस रूपये को हज़ार बताने लगी बार-बार 
उनकी हर ज़रूरत को पूरा करने लगी बार-बार
उनकी झेंप मिटती गई बार-बार 
अब वे मुस्कुराते हैं बार-बार 
झुठ से बचने लगे बार-बार 
अब अपने दस रुपयों को दस ही बताते हैं
प्यार से सबको निहारते हैं
ख़ुशी को जी रहे हैं बार-बार!!
                                              प्रतिभा प्रसाद |

फ़र्ज़

कहने को कोई अर्ज़ न हो
करने को कोई फ़र्ज़ न हो 
इंसान का जाने क्या होगा ?
इस अर्ज़-फ़र्ज़ के मेले में
इस क़र्ज़ का न जाने क्या होगा ?
क़र्ज़ फ़र्ज़ का बाक़ी हो तो 
इंसान कहाँ रह पाएगा ?
मंथन भर मेरा काम रहा 
करना न कोई विश्राम रहा 
जग को सन्देश सुनाना है 
इस अर्ज़-फ़र्ज़ से बाहर आ
अब फ़र्ज़ को पूरा कर ले तू
विश्राम शांति मिल जाएगी
मधुघट तू पा जाएगा 
क्लांति को दूर भगाएगा 
यदि नहीं कर पाया ऐसा 
तो इंसान का जाने क्या होगा ?
                                                  प्रतिभा प्रसाद |
 

प्रेम

किसी की मांग का सिंदूर 
चुरा लेने की
दुष्टा एकता ने
चलाई है मुहिम
और डाली है नींव 
अमंगल परंपरा की
किन्तु हम विचलित न होते ज़रा
है हमारे प्रेम में इतनी ताक़त
वह लौट आता है मुझी में 
सिंदूर की लाज बचता है 
ज़िन्दा हो जाती है हमारी संस्कृति 
फिर एक बार 
विजयी होता है प्रेम 
फिर एक बार 
जब-जब छल छलता रहेगा 
षड़यंत्र से हमारा शिकार करता रहेगा 
तब-तब प्रेम उसे बचाता रहेगा 
प्रेम के आगे हारी है दुनिया 
झुकाता रहा है सबों का 'स्व'
क्योंकि है यह एक मूलमंत्र 
आचरण में जो इसे उतारेगा
कभी हार न पाएगा
प्रेम है भेदविहीन 
हम सब हैं उससे दीन-हीन
आओ , आज संकल्प लें 
प्रेम से जीतेंगे दुनिया 
आचरण में इसे उतारेंगे
विश्व को फिर से पुराना मंत्र देंगे 
वसुधैव कुटुम्बकम का नारा देंगे 
हम प्रेममय होंगे 
प्रेम हम में होगा !
                              प्रतिभा प्रसाद |


 

शराबी

शराबी माँ का बेटा 
शराबी बाप का बेटा 
ग़रीबी में है पलता 
ग़रीबी में है बढ़ता 
पढ़ने की चाहत में 
प्यार से महरूम है रहता 
मार खा-खाकर भी वह 
काम ख़ूब है करता 
है उसे रोटी की चिंता 
है उसे बोटी की चिंता 
चिंता है उसे और भी कई 
घर की चिंता है
भाई-बहन की चिंता है
सबके खाने की चिंता है
सबके रहने की चिंता है 
यह सब तो वह करता है 
फिर भी वह रोता है
प्यार है उसका बंद 
दारू की बोतल में
पढ़ाई है उसकी बंद 
दारु की बोतल में 
इस दारु की बोतल में
न जाने क्या-क्या है बंद 
थी कभी पिता को भी पढने की तमन्ना 
आज उसे भी है 
किन्तु चंद महीनों के बाद 
जब होंगे सारे रास्ते बंद 
वह भी दारु पियेगा
अब सिर धुनेगा 
पढ़ने की चाहत 
घर बनाने की चाहत
सब धूल में मिल जाएगी
वह दारु पियेगा 
दारु उसे पियेगी
शराबी माँ का बेटा 
शराबी बाप का बेटा 
क्या शराबी बनकर ही जियेगा ?
नहीं, उसने समाज को धता बताई 
अपनी मेहनत से अपनी दुनिया बनाई
पढ़-लिखकर नौकरी पर आया 
माँ-बाप का दारु बंद कराया 
शराबी माँ का बेटा 
शराबी बाप का बेटा 
अपनी मेहनत से 
अच्छा इन्सान बन पाया |
                                         प्रतिभा प्रसाद |

पुरुष की सत्ता

भक्त तपस्या में लीन था 
प्रभु की महिमा में विलीन था ,
याचक बन खड़ा था 
अजर-अमर होने के लिए 
प्रार्थना पर अड़ा था 
प्रभु दुविधा में लीन थे 
जानते थे 
ज्यादा दिनों की है ये मंशा नहीं 
फिर स्वयं मुझे पुकारेगा 
मृत्यु का याचक भिखारी होगा 
तब वरदान कैसे वापस लूँगा ?
इसे जीवन से मुक्ति कैसे दूंगा ?
प्रभु ने भक्त को समझाया 
जीवन का भय दिखाया 
कहा , जब  नौकरी नहीं मिलेगी 
बच्चे भूख से चिल्लाएँगे 
सास-बहू के झगड़े में पीसे जाओगे 
क्या तब भी मृत्यु पर विजय पाना चाहोगे ?
भक्त मुस्कुराया ;
कहा , प्रभु क्या मेरी परीक्षा ले रहे हो ?
मेरी तपस्या भंग करने को 
क्या मेनका को लाओगे ?
तुम  उर्वशी को ले आओ या मेनका को 
मेरे पास है रणचंडी , झाँसी की रानी 
चुटकियों में अपनी सौत को भगाएगी 
मुझे  मेरी समस्या से निवारण दिलवाएगी 
ये है उसी का 'आइडिया '!
मैं भी कहाँ चाहता हूँ अमर होना 
जानता हूँ जिंदगी भर 
बीवी की कमाई खाऊंगा 
एक नौकर का जीवन बिताऊंगा 
मुझे  भी  चाहिए इससे त्राण 
पर यदि चला गया बिना वरदान 
ऐसे भी मारा जाऊंगा 
भूख से बिलबिलाऊंगा
बीवी से पिटाॐगा
आप ही कुछ उपाय बताइए 
मुझे इस संकट से उबारिये 
वरदान पा कर भी मर जाऊँगा 
परपोते खरपोते का भी भार उठाऊंगा 
तब स्वयं के बोझ से दब जाऊँगा 
ये है मेरे परिवार का आइडिया 
आनेवाले समय में
जब नौकर नहीं मिला करेंगे 
तब आड़े वक्त 
मैं ही उनके काम आऊंगा 
उन्हें काम की मुसीबत से छुटकारा दिलाऊंगा 
वे लोग ड्राइंगरूम में बैठे टीवी देखा करेंगे 
मुझसे झाड़ू-पोंछा, बर्तन मंजवाया करेंगे 
सीढियों के नीचे
चटाई पर मुझे सुलाया करेंगे
मेरे लिए उनके घर में 
है जगह की कमी 
अभी भी है यही स्थिति
क्या इससे बेहतर होगी कभी 
आपकी शरण में आया हूँ 
झूठ नहीं बोलूँगा 
मैं कुछ रोज़ ही जीना चाहता हूँ 
दुनिया में कुछ आचा कर जाना चाहता हूँ 
पर मेरी बीवी आड़े आती है 
मुझको ललकारती है
कहना है उसका 
पहले परिवार का तो भला कर जाओ 
फिर समय मिला तो समाज का भी कर लेना 
इतनी ही है समाज की फ़िक्र 
तो प्रभु के पास जाकर 
मृत्यु पर विजय मांग लाओ 
मेरे परिवार को
नौकरों की समस्या से निजात दिलाओ 
सो प्रभु ! आपकी शरण में आया हूँ 
आप ही पार लगाऍगे
इस समस्या से उबारेंगे
प्रभु ने थोड़ा सोचते हुए कहा ,
अच्छा जाओ ,
अपनी पत्नी को 
बहू का डर दिखाओ 
सारे अधिकार छीन लो 
लक्ष्मी से मुक्त कर दो 
वह स्वयं ही तुम्हें मुक्त करेगी 
तुम से हाथ जोड़ लेगी 
हे मानव ! थोड़ा बुद्धि से काम लो 
फूट डालो , राज़ करो 
दोनों नारियों को लड़वा दो 
अधिकारों को भिड़ा दो 
तुम्हारा काम स्वयं हो जाएगा 
मैं भी वरदान देने से मुक्त हो जाऊँगा 
मानव को यह आइडिया पसंद आ गया 
प्रभु से विदा ले वह घर आ गया 
सो हे सभासदों ! तभी से 
पुरुष नारियों को
एक-दुसरे से लड़वाकर
आपस में भिड्वाकर
दूर खड़ा हँसता है 
नारी का शोषण करता है 
स्वयं सत्ता में रहता है !!
                                        प्रतिभा प्रसाद |