किनारा

तेरी यातनाओं से 
कैसे निकल पाऊं मैं?
तुमने मुझे तोड़ा है
झकझोरा है
घाव ऐसे दे दिए 
टीस-टीसकर रिसता है
बूंद-बूंदकर खून टपकता है
इन बहती बूंदों को छुपाऊं कैसे ?
तुम्हारे मान का पलड़ा 
छलनाओं से भरा 
औरों की ख़ुशी पलड़े पर देती जाती हो
तुम्हारा मान उठता जाता है
एक दिन जब पलड़ा गिर जाएगा 
तेरे पापों से भर जाएगा 
तुम्हारे मान का क्या होगा ?
तुम्हारे गान का क्या होगा?
मेरे आंसुओं को
आहों को
तुम तौलना सीखो 
कहीं भारी पड़ गया छलना
भेद तेरा खोल देगा 
तो कहाँ मुँह छिपाओगी?
कहाँ फिर तुम जाओगी ?
कैसे मान बचाओगी ?
तेरी यातनाओं से
मैं भी न निकल पाई 
अपने घावों को न सुखा पाई 
तिल-तिलकर जलती हूँ 
फिर भी रौशनी करती हूँ 
शायद किसी भटके मुसाफिर को 
नई राह मिल जाए 
कोई मुकाम मिल जाए 
मुझे तुम्हारे सितम से
कोई किनारा मिल जाए !!
                                         प्रतिभा प्रसाद |

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