क्या तुमने कल देखा है ?

काम के पुकार में जब चल पड़ा है तू 
आग पेट की कब बुझेगी 
सोच में डूबा है तू 
प्रचंड गर्मी है तू तपा है
साँय-साँय लू चल रही 
टपटप पसीना चू रहा 
क्लांत शरीर प्यासा गला 
आग पेट की जल रही 
नसीहतों का पुलिंदा 
मजदूरी में मिला 
कल फिर आना 'चेंज' नहीं है
मन को चेंज कर गया 
नहीं बुझी तब आग पेट की 
अंजुली भर नल के पानी से
गिर पड़ा वह उसी जगह पर 
मजदूरी की आस में
बंद मुट्ठी अब खुल चुकी थी
निर्निमेष आँखें घूर-घूरकर पूछ रही थीं ,
क्या तुमने कल देखा है ?
                                     प्रतिभा प्रसाद |

हरियाली

मौन बन
क्यूँ निरंतर घूमते हो
सच को चुपचुप में चुनते हो
जग में कैसी रीत निराली 
दुनिया है
नीति-मूल्यों से बिलकुल खाली
देना है
जग में कुछ कर्तव्य परायणता  का ज्ञान 
जग हो चला इससे 
कुछ बिलकुल अनजान
परिश्रम के मोती 
जब बिखरेंगे धरती पर
लहलहाएगी हरियाली 
इस धरती ,
इस पृथ्वी पर!!
                           प्रतिभा प्रसाद |

नदी

मैं नदी हूँ 
निरंतर बह रही हूँ 
प्राण देने को हिमगिरि से झर रही हूँ 
नित्य नए स्रोतों से
अलग-अलग नहरों में 
हूँ प्रवाहित 
रोकने का साहस
नहीं कोई कर पाता
प्राण देने की अपनी इच्छा 
हूँ निरंतर चलती 
पर युगों से ढोती मैं गंदगी 
अवश हो चली हूँ |
                            प्रतिभा प्रसाद |

शिवसेना

एक पाकिस्तानी घुमने गया अमेरिका 
एक ही टैक्सी के लिए जिससे गया भिड़
वह था एक हिन्दुस्तानी |
पाकिस्तानी गुस्से से तमतमाया 
दूसरी टैक्सी के लिए हाथ हिलाया 
टैक्सी में बैठ खूब भुनभुनाया,
हिन्दुस्तानी हाथ आ जाए तो कच्चा चबा जाऊं 
उन्हें उनकी औकात बता दूँ
चुटकियों में सकता हूँ मसल 
हिन्दुस्तानी की जलसेना , थलसेना और वायुसेना को
हिंदुस्तान है ही क्या चीज़ !
इतने में टैक्सी ड्राईवर पीछे घूमकर बोला 
अबे पाकिस्तानी !
पहले भारत की शिवसेना से तो निपट !
                                                            प्रतिभा प्रसाद |

याचक

दरवाज़े पर खड़ा था 
एक भिखारी
हाथ-पाँव सलामत 
एक बासी रोटी के लिए 
फैलाए था हाथ 
कहा- माँ जी काम की दुहाई मत देना 
यहाँ तो पढ़े - लिखों को नौकरी नहीं
मैं तो अनपढ़ हूँ , गंवार हूँ 
मन से लाचार हूँ
फिर भी काम के बाद 
रोटी मिलनी है तो 
ला दो कुदाल 
बाग़ तुम्हारे लगा दूंगा 
फूलों से सज़ा दूंगा 
पर भीख में देना मुझे 
एक विश्वास 
क्या भर पेट खिलाओगी खाना?
कई जगह काम किया हूँ 
यूँ ही भगा दिया गया हूँ 
यदि आतंकवादी बन जाऊं 
दो-चार को बम से उड़ा दूँ 
तब होगा बदन पर कपड़ा
खाने को रोटी 
नहीं कहीं होगा फैलाना हाथ 
मौज मस्ती करूँगा 
आराम से रहूँगा 
पर मेरी आत्मा है अभी जीवित 
राष्ट्रप्रेम है जोर मार रहा 
बेटा, भीख मांग लेना 
भूखों मर जाना 
पर देशप्रेम कभी न छोड़ना!
पर देशप्रेम कभी न छोड़ना!!
                                              प्रतिभा प्रसाद |

प्रश्न

सृजन के नाम पर 
बहकावे की गंध में
खो जाती है जिन्दगी 
एक यक्षप्रश्न तैरता है
तुम  हो कौन ?
स्वयं सृष्टीविधाता सृजनकर्ता 
या स्वयं अपने निर्माता 
सोचो नहीं पकती बात 
कोरी कच्ची हांड़ी
बात अधूरी रहती 
मंज़िल से कोसों दूर 
अँधेरी बदनुमा जिंदगी 
यक्षप्रश्न की तरह घूरती है तुम्हें
बहकावे की गंध से
तिलमिलाता मन
सत्य की राह की तलाश में
रह जाता है अधूरा
बेघरबार 
प्रलोभन पर लगा दो पहरा 
निकालो सच्चा भारतीय मन 
पसीने की गंध में कई सीढियाँ चढ़ 
आत्मविश्वास से भर जाओगे 
मुस्कुराओगे 
अगली पीढ़ी को मशाल थमाओगे
बहकावे की गंध से दूर 
सृजन का संसार 
स्वाभिमान मुस्कुराएगा 
सम्मान दिलाएगा 
बदनुमा जिंदगी से उन्हें निकाल लाएगा |
                                                             प्रतिभा प्रसाद |


पीढ़ी

अहंकार में जब झुमने लगा मन 
अम्बर पृथ्वी लगने लगे कम 
मन बल्लियों उछलता था
न जाने कहाँ-कहाँ के गोते लगाता था 
सामने कोई भी आ जाए
सब छोटा लगता था 
रावण का अहंकार सच्चा लगता था 
अचानक सब कुछ बदल गया 
मन ने दिल से पूछा 
क्या अहंकार महानाश का कारण है ?
दिल ने कहा -
सच को क्या प्रमाण की जरुरत है?
तब से मैंने
मन को वश में करने की 

कला सीख ली है 
अब भी मन झूमता है 
बल्लियों उछलता है 
पर उसमें अहंकार नहीं होता |
                                                प्रतिभा प्रसाद |

हम हिन्दुस्तानी

कारगिल का युद्ध हो
या सन बासठ की लड़ाई 
मरते हैं सारे हिन्दुस्तानी भाई 
तब न होता कोई 
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई
क्यों नहीं सीमाओं पर होते 
ऐसे सिपाही , भ्रष्ट नेता , बेईमान व्यापारी 
मुहल्ले का दादा 
चौक का गुण्डा
जो डरा धमकाकर 
माल खिलाकर 
युद्ध को 'फिक्स' कर लेते 
अपने देश के लिए 
अपने हुनर का कमाल दिखाते 
उनकी ज़मीन भी हड़प कर ले आते !
ऊपर से देवता अन्दर प्रपंच 
ऐसे हैं नेता टुच्चे सरपंच 
मदारी डुगडुगी बजाओ 
ऐसा नाच नचाओ 
सारों को हिन्दुस्तानी होने का पाठ पढ़ाओ
उन्हें समझाओ 
भ्रष्टता और बेईमानी से
छुटकारा दिलाओ 
भारत सोने की चिड़िया न सही
असली चिड़ियों का बसेरा तो बनाओ 
हम हैं हिन्दुस्तानी 
यह समझो और समझाओ |
                                             प्रतिभा प्रसाद |

उपाय

एक महाशय ने पूछा 
बाढ़ से बचने का कारगर उपाय 
मैंने बताया ,
नदियाँ गहरी कर दी जाएँ 
उन्होंने फरमाया ,
बहुत खर्चीला है |
दूसरा उपाय बताया ,
पेड़ लगवाए जाएँ 
उन्होंने फरमाया ,
समय लम्बा खिंच जाएगा 
मैंने खीझकर कहा ,
है एक आसान उपाय 
जो न तो है खर्चीला 
और न ही होगा उसमें समय का अपव्यय 
वे हुए परेशान 
मैंने बताया,
किसी प्रसिद्ध मंदिर में जाइए 
घंटा बजाइए 
प्रार्थना कीजिए
हे प्रभु पानी मत बरसना 
बाढ़ मत लाना 
तुम्हीं हो बाढ़ से बचाने का कारगर उपाय |
                                                                 प्रतिभा प्रसाद |

पहरा

हमारी हर अभिव्यक्ति पर 
है उनका सख्त पहरा 
पहरे में हो गई यदि कहीं चूक
तब भी मेरी संवेदना हो जाती है मूक 
उनके पहरे से होती है तकलीफ़
पर मैं हूँ उनके प्यार से वाकिफ़
वे मुझे कहीं खो न दें 
इसलिए हैं सख्त 
लेकिन निकाल नहीं पाते
मेरे लिए वक्त 
प्यार के लिए उनकी अभिव्यक्ति 
कहीं अन्दर है बंद 
इस वजह से बन नहीं पता 
प्यार का कोई छंद
वे अकुलाते हैं तड़पते हैं
रह जाते हैं खामोश 
फिर भी हमारा संसार 
चलता है कमोबेश !
                               प्रतिभा प्रसाद |

लुगाई

वे जब भी आते 
साथ में 'लुगाई पुराण' भी लाते  
ऐसी-ऐसी उपमाओं से
अपनी लुगाई को अलंकृत करते 
कि हम सब हँसे बिना नहीं रहते 
एक दिन उनकी लुगाई से मिलना हुआ 
सच का पर्दाफाश हुआ 
उनके हंसोड़पन का ज्ञान हुआ 
व्यवहारकुशल, सुन्दर , शालीन थी
उनकी लुगाई आवभगत में लीन थी
मैं अपनी सोच में विलीन थी
महिलाएं ही हास्य का आलम्बन क्यों ?
दुसरे दिन जब वे आए 
अपने लुगाई पुराण का ताज़ा अंक लाए
तभी मैंने उस लुगाई के
पति कि ताज़ा खबर सुनाई
सुन्दरता के विपरीत कुरूपता का पाठ पढ़ाया
वे शर्माए झल्लाए झेंपे 
कहा , दूसरों को कोई भी उपमा देना 
कितना है सरल 
जब बोझ अपने सिर आता है
असलियत दिखलाता है 
मन को रुलाता है
तब ये भाव हो जाता है विरल 
मैंने तन से ही नहीं 
मन से सुन्दर पत्नी का अपमान किया है
आज जब आपने दिखा दिया है आईना
हिम सी पीर से जड़वत हो गया हूँ मैं 
मेरी लुगाई तब भी मुस्कुराती थी 
अब भी मुस्कुराती है |
अब समझ आया 
इन सब से परे निर्विकार होना 
केवल मुस्कुराना....दिल में मुस्कुराना 
भी है एक कला 
ज़िंदादिली की मिसाल 
जो सीख मुझे लुगाई ने दी है 
उसे याद रखूंगा 
अब किसी को
मिथ्या आलम्बन नहीं बनाऊंगा 
सच के लिए सच ही लिखूंगा |
                                                प्रतिभा प्रसाद |

आशा

अंतर्मन में जब हो पीड़ा 
जग बैरी हो जाता है 
शैतान है अन्दर 
दर्द का कोहरा 
जीवन धूमिल बनाता है
आशा में विश्वास छुपा है
गंध ख़ुशी की आती है
तिमिर छेद कर अन्दर बिजली 
हर्ष का दमन थाम लिया 
क्षणिक भले हो ख़ुशी तुम्हारी 
आनंद असीम दे जाती है
मन की आशा डोर सम बन 
सौरभ सम हो जाती है|
                                      प्रतिभा प्रसाद |

मन

तुझसे ही तुझको अब
पाने का मन करता है
बच्चों के संग मिलकर अब
गाने का मन करता है
जो भूल गए तुम सपनों को 
उन्हें याद दिलाने का मन करता है
प्रलय की चिंता से घबरा 
जो घरौंदे तुमने छोड़ दिए 
अब नई चेतना से
उन्हें सजाने का मन करता है
नियंत्रण में फंसकर उलझती रही हूँ 
नियंत्रण से बाहर निमंत्रण पर 
अब तो जीने का मन करता है
                                                प्रतिभा प्रसाद |

ब्लैंक चेक

बेटा मेरा ब्लैंक  चेक है,
जब चाहे उसे भंजा लूँगी
सुन्दर सी दुल्हनिया लाकर 
घर उसका बसा दूँगी
बेटे ने तब पूछा मुझसे ,
ब्लैंक  चेक जब भंजा तुम्हारा 
क्या-क्या तुमको मिल पाया ,
मेरे लिए क्या-क्या है लाई 
यह भी तो बतला मुझको,
शील-गुण की भरी पिटारी 
सुन्दर बोली , सरल मनभावन ,
ऐसी सुन्दर दुल्हनिया लाई 
जीवन भर तेरा साथ निभाए ,
वंशबेल आगे बढ़ जाए 
झुन-झुनकर जब चलकर आए,
सूने घर को चमन बनाए
है जीवन की तेरी संगिनी 
ससुर की दुलारी सास की सलोनी 
पति की प्राणप्यारी देवर की भाभी 
है वह घर की कुलवधू 
प्रतिभा है सचमुच गुणों की
और है वह मेरी अभिलाषा की प्रतिमा |
                                                          प्रतिभा प्रसाद |

ख़्वाब

महक जाने को दिल करता 
चहककर जो तुम आते 
दुनिया मेरी बदल जाती 
ख़्वाब पूरा हो जाता 
सपनों में खो जाना 
नहीं चाहते मैं और तुम 
घर हो अपना-अपना सा 
क्यारी में हो बेली-चमेली 
गुलाबों की कतारों से
महक इतनी आती हो
की खुशबू की मदहोशी में 
हम दोनों ही नहा जाएँ 
गुलाबी रंग तेरा ले,
गुलाबी होंठ मेरे ले 
नई कली हम दोनों की ,
तेरी मेरी जैसी हो 
फिर गूंजेगा आशियाँ अपना 
किलकारियों की तानों पे
हम सब नाचेंगे ,
खूब गाने गाएँगे
लोरियां अपनी धुन बजाएगी 
चांदनी से नहाएगी 
गुलाबों की महक में
फिर हम दोनों भींग जाएँगे |
                                            प्रतिभा प्रसाद |

किनारा

तेरी यातनाओं से 
कैसे निकल पाऊं मैं?
तुमने मुझे तोड़ा है
झकझोरा है
घाव ऐसे दे दिए 
टीस-टीसकर रिसता है
बूंद-बूंदकर खून टपकता है
इन बहती बूंदों को छुपाऊं कैसे ?
तुम्हारे मान का पलड़ा 
छलनाओं से भरा 
औरों की ख़ुशी पलड़े पर देती जाती हो
तुम्हारा मान उठता जाता है
एक दिन जब पलड़ा गिर जाएगा 
तेरे पापों से भर जाएगा 
तुम्हारे मान का क्या होगा ?
तुम्हारे गान का क्या होगा?
मेरे आंसुओं को
आहों को
तुम तौलना सीखो 
कहीं भारी पड़ गया छलना
भेद तेरा खोल देगा 
तो कहाँ मुँह छिपाओगी?
कहाँ फिर तुम जाओगी ?
कैसे मान बचाओगी ?
तेरी यातनाओं से
मैं भी न निकल पाई 
अपने घावों को न सुखा पाई 
तिल-तिलकर जलती हूँ 
फिर भी रौशनी करती हूँ 
शायद किसी भटके मुसाफिर को 
नई राह मिल जाए 
कोई मुकाम मिल जाए 
मुझे तुम्हारे सितम से
कोई किनारा मिल जाए !!
                                         प्रतिभा प्रसाद |