"अमृत कलश"

तुम्हें लोरी गा - गाकर सुलाना
समझा समझाकर पढ़ना
गीत गुनगुनाकर उठाना
प्यार से खिलाना
सब याद आता है
मुझे दूर अब कैसे रहू
तुझसे तुम समा गयी हो मेरे अन्दर
बन गयी हो मेरे मन का समन्दर
मन में उठता है जब बवंडर
तुम्हारे प्यार को सीप बन चुनती हूँ अन्दर ही अन्दर
तुम हो मेरे जिस्म का एक हिस्सा
पर मैं नहीं चाहती
बन जाए यह तुम्हारे जीवन का किस्सा
मेरे हिस्से का यह प्यार
तुम अपने आने वाली पीढ़ी मैं पिरोना
उसे प्यार दुलार इतना तुम देना
अमृत - कलश बन जब एक दिन छलकेगा
कई पीढियों को प्यार मैं वह डुबो देगा
परिवार सागर से भी
वह प्यार का सागर बटोरेगा
उस अमृत कलश से
मैं भी कुछ बूंदे पा लुंगी
अपने जीवन को धन्य बना लुंगी




प्रतिभा प्रसाद

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